Saturday, 11 October 2008

आत्महंता जी गया

विचारों के अंधकार से,
मन उड़ चला आकाश,
चौंधियाया पर देखकर,
तीव्र एक प्रकाश पुंज,
गिरने लगा तम की ओर,
उठी एक टीस सी,
चुपचाप-सा सह वेदना,
मैं गरल प्याला पी गया।
वर्तमान को बिना सहेजे,
भूत से भविष्य को चला,
नियति से निरंतर लड़ता हुआ,
छलांग थी अवसाद पर,
जीवन संपृक्त उन्माद संग,
वेध कर निकली लगा,
एक वाण जीवन सत्य को,
उर में सहेजे दर्द अब,
बस, आत्महंता जी गया।

6 comments:

seema gupta said...

जीवन संपृक्त उन्माद संग,
वेध कर निकली लगा,
एक वाण जीवन सत्य को,
उर में सहेजे दर्द अब,
बस, आत्महंता जी गया।
' uf!ek ek shabd dil ko bhaid kr neekal gya hai.... kya hai ye smej nahee aaya, magar kuch hai bhut gehra....'

regards

प्रदीप मानोरिया said...

हमेशा की तरह बेहतरीन रचना के लिए धन्यवाद आपके आगमन के लिए भी धन्यबाद मेरी नई रचना कैलंडर पढने हेतु आप सादर आमंत्रित हैं

Dr. Nazar Mahmood said...

khoob kaha

vidya singh said...

atmahanta jee gaya....kavita achchhi lagi.dard bhi jeevan ka ek kadwa satya hai kintu jijivisha usse kahin badi hai.dhanyavaad.

bhawna....anu said...

कविता बहुत संवेदनशील भावनाएं समेटे है....बेहद गहरी...!
शुभकामनाएं!

अभिषेक मिश्र said...

एक वाण जीवन सत्य को,
उर में सहेजे दर्द अब,
बस, आत्महंता जी गया।
Aatmhanta ko to jeena hi hai,Hamein unki aur posts bhi to padhni hain. Magar dard ke saath khushi bhi mile, shubhkaamnayein.Swagat mere blog par bhi.