विचारों के अंधकार से,
मन उड़ चला आकाश,
चौंधियाया पर देखकर,
तीव्र एक प्रकाश पुंज,
गिरने लगा तम की ओर,
उठी एक टीस सी,
चुपचाप-सा सह वेदना,
मैं गरल प्याला पी गया।
वर्तमान को बिना सहेजे,
भूत से भविष्य को चला,
नियति से निरंतर लड़ता हुआ,
छलांग थी अवसाद पर,
जीवन संपृक्त उन्माद संग,
वेध कर निकली लगा,
एक वाण जीवन सत्य को,
उर में सहेजे दर्द अब,
बस, आत्महंता जी गया।
Saturday, 11 October 2008
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6 comments:
जीवन संपृक्त उन्माद संग,
वेध कर निकली लगा,
एक वाण जीवन सत्य को,
उर में सहेजे दर्द अब,
बस, आत्महंता जी गया।
' uf!ek ek shabd dil ko bhaid kr neekal gya hai.... kya hai ye smej nahee aaya, magar kuch hai bhut gehra....'
regards
हमेशा की तरह बेहतरीन रचना के लिए धन्यवाद आपके आगमन के लिए भी धन्यबाद मेरी नई रचना कैलंडर पढने हेतु आप सादर आमंत्रित हैं
khoob kaha
atmahanta jee gaya....kavita achchhi lagi.dard bhi jeevan ka ek kadwa satya hai kintu jijivisha usse kahin badi hai.dhanyavaad.
कविता बहुत संवेदनशील भावनाएं समेटे है....बेहद गहरी...!
शुभकामनाएं!
एक वाण जीवन सत्य को,
उर में सहेजे दर्द अब,
बस, आत्महंता जी गया।
Aatmhanta ko to jeena hi hai,Hamein unki aur posts bhi to padhni hain. Magar dard ke saath khushi bhi mile, shubhkaamnayein.Swagat mere blog par bhi.
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