Wednesday, 1 October 2008

संजीवनी

मधुर शुष्कता के संग,
फेन बुदबुद सी-
थी समाप्त हो रही,
जीवन की हर उमंग।
उस एक अन्तःस्पर्श से,
अंधेरे अंतर्मन की,
अनंत गहराई से उठी,
झंकृत कर एक तरंग।
लहरें उठी अनायास,
जगाकर एक स्वप्निल,
जीवनमय सा अहसास,
बिखरा गई कितने ही रंग।
हारता, टूटता, बिखरता,
जी उठा कुछ पाकर फ़िर,
आत्मा लगा जाग उठी,
किसी संजीवनी के संग।

6 comments:

seema gupta said...

हारता, टूटता, बिखरता,
जी उठा कुछ पाकर फ़िर,
आत्मा लगा जाग उठी,
किसी संजीवनी के संग।

' dil ke gehrayeeon tk jatey shabd...'

regards

vidya singh said...

कविता का आशावादी स्वर जीवन के प्रति आस्था उत्पन्न करता है.एक छोटी सी उम्मीद भी हमें जीने की ताक़त देती है.अच्छी कविता के लिए बधाई.

अभिषेक मिश्र said...

Jab Sanjivani hai to aatmhanta kyon? Achi kavita, badhai.

Neelam Soni said...

हमारे ब्लॉग पर आने का शुक्रिया,
हम साहित्य से कोसों दूर है , पर बस अच्छी लगती है कवितायें , शेर और शायरी जो सोचने को मजबूर करें....

प्रदीप मानोरिया said...

सौन्दर्यपूर्ण शब्दों से सजी सुंदर कविता के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपके मेरे ब्लॉग पर पधारने का धन्यबाद कृपया पुन: पधारे मेरी नई रचना मुंबई उनके बाप की पढने हेतु सादर आमंत्रण

seema gupta said...

दीप मल्लिका दीपावली - आपके परिवारजनों, मित्रों, स्नेहीजनों व शुभ चिंतकों के लिये सुख, समृद्धि, शांति व धन-वैभव दायक हो॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ इसी कामना के साथ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ दीपावली एवं नव वर्ष की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं