मुझे नही समझ पाता कोई,
या मैं ख़ुद को नहीं समझ पाता,
किया नहीं गुनाह जो अबतक,
उसकी सजा बस रहा पाता।
ह्रदय अग्नि के तेज में,
जल-जल राख है हुआ जाता,
आंसुओं को सहेजने की कोशिश,
हर बार रहा रुला जाता।
इस पवित्र अंतर्मन की चाहत,
अब बस पाप कहा जाता,
विदग्ध ह्रदय की आह संग,
नहीं अब और रहा जाता।
जीवन की गति अब मंद हुई,
अकेलापन है खाता जाता,
श्वास चल रही आस में क्यों ?
क्यों नहीं श्मशान चला जाता?
Sunday, 28 September 2008
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5 comments:
रचना मॆ बहुत निराशा झलकती है।लेकिन अभिव्यक्ति अच्छी है।
इस पवित्र अंतर्मन की चाहत,
अब बस पाप कहा जाता,
विदग्ध ह्रदय की आह संग,
नहीं अब और रहा जाता।
जीवन की गति अब मंद हुई,
अकेलापन है खाता जाता,
श्वास चल रही आस में क्यों ?
क्यों नहीं श्मशान चला जाता?
"bhut dard bhree hai, dil ko bechain kerne walee rchna hai.."
Regards
श्वास चल रही आस में क्यों ?
क्यों नहीं श्मशान चला जाता?
सुंदर अति सुंदर पंक्तियाँ .. आपका चिठ्ठा जगत में हार्दिक स्वागत है निरंतरता की चाहत है .. मेरा आमंत्रण स्वीकारें समय निकल कर मेरे ब्लॉग पर पधारें
bahut sunder rachana
regards
आपके आगमन के लिए धन्यबाद मेरी नई रचना शेयर बाज़ार पढने आप सादर आमंत्रित हैं
कृपया पधार कर आनंद उठाए जाते जाते अपनी प्रतिक्रया अवश्य छोड़ जाए
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