Sunday, 28 September 2008

क्यों नहीं श्मशान चला जाता?

मुझे नही समझ पाता कोई,
या मैं ख़ुद को नहीं समझ पाता,
किया नहीं गुनाह जो अबतक,
उसकी सजा बस रहा पाता।
ह्रदय अग्नि के तेज में,
जल-जल राख है हुआ जाता,
आंसुओं को सहेजने की कोशिश,
हर बार रहा रुला जाता।
इस पवित्र अंतर्मन की चाहत,
अब बस पाप कहा जाता,
विदग्ध ह्रदय की आह संग,
नहीं अब और रहा जाता।
जीवन की गति अब मंद हुई,
अकेलापन है खाता जाता,
श्वास चल रही आस में क्यों ?
क्यों नहीं श्मशान चला जाता?

5 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

रचना मॆ बहुत निराशा झलकती है।लेकिन अभिव्यक्ति अच्छी है।

इस पवित्र अंतर्मन की चाहत,
अब बस पाप कहा जाता,
विदग्ध ह्रदय की आह संग,
नहीं अब और रहा जाता।

seema gupta said...

जीवन की गति अब मंद हुई,
अकेलापन है खाता जाता,
श्वास चल रही आस में क्यों ?
क्यों नहीं श्मशान चला जाता?
"bhut dard bhree hai, dil ko bechain kerne walee rchna hai.."

Regards

प्रदीप मानोरिया said...

श्वास चल रही आस में क्यों ?
क्यों नहीं श्मशान चला जाता?
सुंदर अति सुंदर पंक्तियाँ .. आपका चिठ्ठा जगत में हार्दिक स्वागत है निरंतरता की चाहत है .. मेरा आमंत्रण स्वीकारें समय निकल कर मेरे ब्लॉग पर पधारें

makrand said...

bahut sunder rachana
regards

प्रदीप मानोरिया said...

आपके आगमन के लिए धन्यबाद मेरी नई रचना शेयर बाज़ार पढने आप सादर आमंत्रित हैं
कृपया पधार कर आनंद उठाए जाते जाते अपनी प्रतिक्रया अवश्य छोड़ जाए