देखती है आँखें,
सूनी राह के राही को,
जिन्दगी के हर पल में,
एक सूनेपन को छिपाए,
वह सूनापन-
नहीं दौड़ता काटने को,
नहीं उत्पन्न करता संत्रास,
वह निरंतर बढाता है,
उस सूने पथ के राही से,
मिलन की बस प्यास।
गहन तम के बिच,
टटोलकर आगे बढ़ता गया,
ठोकरें खायी-गिरा भी,
पर उठा फ़िर टटोलकर-
मिलन की आस में,
फ़िर सीढियाँ चढ़ता गया।
Monday, 22 September 2008
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2 comments:
बहुत बढिया रचना है।बधाई स्वीकारें।
"read your poetry, really it is totally different kind of thought about own self, really great to know and found interetsing"
Regards
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