महसूस हुई मुझे,
फूलों की चुभन,
एक भय का अहसास,
बलबला कर निकला,
दिन के उजाले में,
काला घटाटोप अँधेरा,
मेरे सामने था खड़ा,
दीवार की तरह,
मुंह चिढाता मुझे,
मैं जकडा खड़ा,
ताकता शून्य में,
बीमार की तरह।
भीड़ के बीच खड़ा,
मगर फ़िर भी अकेला,
हँसते हुए लोग थे,
शायद मुझ पर,
शायद ख़ुद पर,
और था मैं भी खड़ा,
हँसता-अपने जीवन की,
अनंत वीरानगी पर,
फ़िर भी मैं रहा खड़ा,
बेशर्मों की तरह,
बिना किसी संकोच के,
हँसता-अपने ह्रदय की,
अनंत दीवानगी पर।
Thursday, 25 September 2008
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2 comments:
bhut sundar rachana. badhai ho.
बहुत खूब ...
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