Monday, 22 September 2008

बचा गया मुझे मेरा संस्कार

रात्रि की निस्तब्धता में,
किसी कुत्ते के भौंकने,
किसी पक्षी के चीखने,
या कि फ़िर मेरे अन्तर्मन की-
जोरदार सन्नाटे को चीरती,
वह गहरे कुँए से आने का-
आभास देती मेरी चीख,
नही समझ पाया मैं,
इसलिए नही कि नासमझ हूँ,
वरन इसलिए क्योंकि,
नासमझ ही हूँ।
आँखे चीरे देखता,
अंधेरे में घूर-घूर,
काली रात के सन्नाटे में,
देखता रहा दूर-दूर,
एक जुगनू सा भी नही चमका,
फ़िर भी कुछ देखने को,
निरंतर ताकता रहा,
फ़िर कुछ दिखा भी,
वही गहन अनंत अंधकार।
विकल रहा अत्यन्त,
कुछ तोड़ने का प्रयास,
निरंतर करता रहा,
पर सदा लाख कोशिशों-
के बाद भी विफल रहा,
न दूर हुई वह निस्तब्धता,
न मिट सका वह अंधकार,
फ़िर लगा-अच्छा हुआ,
बचा गया मुझे मेरा संस्कार।

(वर्त्तमान दौर में हम अपने मूल्यों को जिस प्रकार खोते जा रहे हैं, जीवन में जो एक खालीपन सा ता जा रहा है, एक निष्क्रियता सी मनो-मस्तिष्क पर छाती जा रही है,गहन संत्रास की वेदना को हम झेल रहे हैं और इससे जो सम्वेदनशुन्यता उत्पन्न हो रही है, उससे रक्षा तभी हो सकती है जब हम अपने संस्कारों के पूर्ण त्याग से बचें)

2 comments:

श्यामल सुमन said...

बहुत सुन्दर भाव। बधाई। किसी की दो पंक्तियाँ -

सारे चराग हमने लहू से जलाये है।
जुगनू पकड के घर में उजाला नहीं किया।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com

श्यामल सुमन said...

बहुत सुन्दर भाव। बधाई। किसी की दो पंक्तियाँ -

सारे चराग हमने लहू से जलाये है।
जुगनू पकड के घर में उजाला नहीं किया।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com