Sunday, 21 September 2008

आत्मसंघर्ष

उंगलियाँ चटखाता,
बैठा इंतजार में,
स्वयं से संघर्षरत,
गहन विचार में,
जीत की आकांक्षा लिए,
अपने हर हार में,
कुछ पाने को तत्पर,
कुछ गंवाने को तैयार,
दुर्धर्ष आत्मसंघर्ष के संग,
इस जीवन व्यापर में।
कभी आंदोलित होता,
कभी चिहुँकता,
कभी स्वयं से हारता,
कभी शायद जीतता,
कभी-सकता तो लूटता,
कहीं ख़ुद लुट जाता,
अनवरत अनंत मार्ग पर,
बिना रुके- बिना थके,
घोडे की तरह दौड़ता मैं,
कभी कलयुगी संसार में।

5 comments:

Shastri JC Philip said...

"अनवरत अनंत मार्ग पर,
बिना रुके- बिना थके,
घोडे की तरह दौड़ता मैं,
कभी कलयुगी संसार में। "

एक दम आशावादी कविता!! सुंदर अभिव्यक्ति!

-- शास्त्री

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Unknown said...

सराहनीय प्रयास

आरंभ

Yatish Jain said...

अब सुरू हुए हो रुकना नही, यू ही लिखते रहना क़तरा-क़तरा

ज्ञान said...

कुछ पाने को तत्पर,
कुछ गंवाने को तैयार,

वाह्।
लिखते रहें

श्यामल सुमन said...

सच्चाई से जूझती हुई आपकी यह आशावादी रचना अच्छी लगी। मैं कहना चाहूँगा कि-

लगे चुराने सपन हमारे, सुनहरे सपने सजाये रखना।
कभी तीरगी खतम तो होगी,चराग दिल में जलाये रखना।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com