जीवन सन्दर्भों से,
जुड़कर भी,
रहा मैं टूटता,
हर कदम पर,
पैरों का साथ,
था छूटता,
पवन के शोर,
झरने की आवाज,
पक्षियों का कलरव,
प्रकृति की हर साज,
और फ़िर मैं-
था ख़ुद से पूछता,
मैं कौन हूँ?
एक मद्धम,
पर कहीं गहराई से,
आयी कोई आवाज-
अपने ही अंतर्मन के-
इच्छाओं का,
आकाँक्षाओं का,
ईमान का,
व्यक्तित्व का,
कृतित्व का,
हत्यारा है तू-
है तू आत्महंता।
Sunday, 21 September 2008
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4 comments:
बहुत गहरी बात कह दी आपने । पर है सही ।सुंदर ।
बेहतरीन..आभार.
बहुत गहरा आत्ममंथन किया है।सुन्दर रचना है।
आपके विचारो की गहराई जानकर प्रसन्नता हुई मेरा कविता वाला ब्लॉग कभी फुर्सत में अवश्य देखे- http://ujjawaltrivedi-poetry.blogspot.com
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