Saturday, 11 October 2008

आत्महंता जी गया

विचारों के अंधकार से,
मन उड़ चला आकाश,
चौंधियाया पर देखकर,
तीव्र एक प्रकाश पुंज,
गिरने लगा तम की ओर,
उठी एक टीस सी,
चुपचाप-सा सह वेदना,
मैं गरल प्याला पी गया।
वर्तमान को बिना सहेजे,
भूत से भविष्य को चला,
नियति से निरंतर लड़ता हुआ,
छलांग थी अवसाद पर,
जीवन संपृक्त उन्माद संग,
वेध कर निकली लगा,
एक वाण जीवन सत्य को,
उर में सहेजे दर्द अब,
बस, आत्महंता जी गया।

Wednesday, 1 October 2008

संजीवनी

मधुर शुष्कता के संग,
फेन बुदबुद सी-
थी समाप्त हो रही,
जीवन की हर उमंग।
उस एक अन्तःस्पर्श से,
अंधेरे अंतर्मन की,
अनंत गहराई से उठी,
झंकृत कर एक तरंग।
लहरें उठी अनायास,
जगाकर एक स्वप्निल,
जीवनमय सा अहसास,
बिखरा गई कितने ही रंग।
हारता, टूटता, बिखरता,
जी उठा कुछ पाकर फ़िर,
आत्मा लगा जाग उठी,
किसी संजीवनी के संग।

Sunday, 28 September 2008

क्यों नहीं श्मशान चला जाता?

मुझे नही समझ पाता कोई,
या मैं ख़ुद को नहीं समझ पाता,
किया नहीं गुनाह जो अबतक,
उसकी सजा बस रहा पाता।
ह्रदय अग्नि के तेज में,
जल-जल राख है हुआ जाता,
आंसुओं को सहेजने की कोशिश,
हर बार रहा रुला जाता।
इस पवित्र अंतर्मन की चाहत,
अब बस पाप कहा जाता,
विदग्ध ह्रदय की आह संग,
नहीं अब और रहा जाता।
जीवन की गति अब मंद हुई,
अकेलापन है खाता जाता,
श्वास चल रही आस में क्यों ?
क्यों नहीं श्मशान चला जाता?

Saturday, 27 September 2008

संघर्ष

बिना किसी दोष के,
मिलती हैं क्यों सजाएं?
जीवित रहकर भी मरनेवाले,
किसी से अब क्या बताएँ?
हर एक पल रह-रह कर,
जाने क्यों ठोकरें लगाता है?
गिरना फ़िर उठना,उठकर फ़िर गिरना,
जाने निरंतर हमें क्या बताता है?
संघर्ष की अनवरत यह गति,
कोई बताये कबतक चलेगी?
यह द्वंद्व रक्त प्रवाह संग,
क्या अन्तिम साँस तक चलेगी?
अब जीतकर या हारकर,
जीना होगा क्यों रार कर?
संघर्ष से हर दीवार को पार कर,
चढती है लहरे चट्टानें ज्यों पारकर।

Thursday, 25 September 2008

अहसास

महसूस हुई मुझे,
फूलों की चुभन,
एक भय का अहसास,
बलबला कर निकला,
दिन के उजाले में,
काला घटाटोप अँधेरा,
मेरे सामने था खड़ा,
दीवार की तरह,
मुंह चिढाता मुझे,
मैं जकडा खड़ा,
ताकता शून्य में,
बीमार की तरह।
भीड़ के बीच खड़ा,
मगर फ़िर भी अकेला,
हँसते हुए लोग थे,
शायद मुझ पर,
शायद ख़ुद पर,
और था मैं भी खड़ा,
हँसता-अपने जीवन की,
अनंत वीरानगी पर,
फ़िर भी मैं रहा खड़ा,
बेशर्मों की तरह,
बिना किसी संकोच के,
हँसता-अपने ह्रदय की,
अनंत दीवानगी पर।

Monday, 22 September 2008

आशा

देखती है आँखें,
सूनी राह के राही को,
जिन्दगी के हर पल में,
एक सूनेपन को छिपाए,
वह सूनापन-
नहीं दौड़ता काटने को,
नहीं उत्पन्न करता संत्रास,
वह निरंतर बढाता है,
उस सूने पथ के राही से,
मिलन की बस प्यास।
गहन तम के बिच,
टटोलकर आगे बढ़ता गया,
ठोकरें खायी-गिरा भी,
पर उठा फ़िर टटोलकर-
मिलन की आस में,
फ़िर सीढियाँ चढ़ता गया।

बचा गया मुझे मेरा संस्कार

रात्रि की निस्तब्धता में,
किसी कुत्ते के भौंकने,
किसी पक्षी के चीखने,
या कि फ़िर मेरे अन्तर्मन की-
जोरदार सन्नाटे को चीरती,
वह गहरे कुँए से आने का-
आभास देती मेरी चीख,
नही समझ पाया मैं,
इसलिए नही कि नासमझ हूँ,
वरन इसलिए क्योंकि,
नासमझ ही हूँ।
आँखे चीरे देखता,
अंधेरे में घूर-घूर,
काली रात के सन्नाटे में,
देखता रहा दूर-दूर,
एक जुगनू सा भी नही चमका,
फ़िर भी कुछ देखने को,
निरंतर ताकता रहा,
फ़िर कुछ दिखा भी,
वही गहन अनंत अंधकार।
विकल रहा अत्यन्त,
कुछ तोड़ने का प्रयास,
निरंतर करता रहा,
पर सदा लाख कोशिशों-
के बाद भी विफल रहा,
न दूर हुई वह निस्तब्धता,
न मिट सका वह अंधकार,
फ़िर लगा-अच्छा हुआ,
बचा गया मुझे मेरा संस्कार।

(वर्त्तमान दौर में हम अपने मूल्यों को जिस प्रकार खोते जा रहे हैं, जीवन में जो एक खालीपन सा ता जा रहा है, एक निष्क्रियता सी मनो-मस्तिष्क पर छाती जा रही है,गहन संत्रास की वेदना को हम झेल रहे हैं और इससे जो सम्वेदनशुन्यता उत्पन्न हो रही है, उससे रक्षा तभी हो सकती है जब हम अपने संस्कारों के पूर्ण त्याग से बचें)