Saturday, 11 October 2008

आत्महंता जी गया

विचारों के अंधकार से,
मन उड़ चला आकाश,
चौंधियाया पर देखकर,
तीव्र एक प्रकाश पुंज,
गिरने लगा तम की ओर,
उठी एक टीस सी,
चुपचाप-सा सह वेदना,
मैं गरल प्याला पी गया।
वर्तमान को बिना सहेजे,
भूत से भविष्य को चला,
नियति से निरंतर लड़ता हुआ,
छलांग थी अवसाद पर,
जीवन संपृक्त उन्माद संग,
वेध कर निकली लगा,
एक वाण जीवन सत्य को,
उर में सहेजे दर्द अब,
बस, आत्महंता जी गया।

Wednesday, 1 October 2008

संजीवनी

मधुर शुष्कता के संग,
फेन बुदबुद सी-
थी समाप्त हो रही,
जीवन की हर उमंग।
उस एक अन्तःस्पर्श से,
अंधेरे अंतर्मन की,
अनंत गहराई से उठी,
झंकृत कर एक तरंग।
लहरें उठी अनायास,
जगाकर एक स्वप्निल,
जीवनमय सा अहसास,
बिखरा गई कितने ही रंग।
हारता, टूटता, बिखरता,
जी उठा कुछ पाकर फ़िर,
आत्मा लगा जाग उठी,
किसी संजीवनी के संग।